कठिन शब्दार्थ-चीन्ह लेना = पहचान लेना। सनातन भाव = सृष्टि के आरम्भ होने का भाव। निरोध = रोकना। इच्छा निरोध स्तपः = इच्छाओं पर नियन्त्रण ही तपस्या है। नकारात्मक = निषेधवाचक। मोक्ष = मुक्ति। लोभनीय = लुभाने योग्य।
सन्दर्भ तथा प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘सृजन’ में संकलित ‘बाजार दर्शन’ शीर्षक विचारात्मक निबन्ध से लिया गया है। इसके लेखक जैनेन्द्र कुमार हैं। बाजार का जादू उसको ही प्रभावित करता है, जिसके पास खुब पैसा हो और यह पता न हो कि उसकी जरूरत क्या है। बाजार के आकर्षण से बचना है तो मन खाली नहीं होना चाहिए।
व्याख्या-लेखक कहता है कि यह समझना बहुत जरूरी है कि मेन खाली न रहने का तात्पर्य मन को बन्द रहना नहीं है। दोनों बातों में अन्तर है और इस अन्तर को पहचानना आवश्यक है। जो बन्द हो जायगा वह शून्य हो जायगा। परमात्मा को ही शून्य होने का अधिकार है क्योंकि वह सनातन और सम्पूर्ण है। अन्य सभी अपूर्ण हैं। अत: मन बन्द नहीं हो सकता है। यह झूठ है कि मनुष्य अपनी सभी इच्छाओं को नियन्त्रित कर लेगा, उन पर रोक लगा लेगा। इच्छाओं को रोकना तप है। यदि ‘इच्छानिरोधस्तप:’ का यही निषेध अथवा नकारसूचक अर्थ है तो तपस्या अर्थहीन है। इस प्रकार का तप मुक्ति देने वाला नहीं होता। उससे कोई लाभ नहीं है। मन को बलात् बन्द रखना मूर्खता है। इस प्रकार मन को निरुद्ध करके लोभ पर विजय नहीं पाई जा सकती।
लोभ मन में होता है और वहाँ नकारात्मकता हो, तो यह लोभ की ही जीत है। यह लोभ को जीतने का प्रयास करने वाले मनुष्य की हार है। जो आपको अपनी ओर आकर्षित कर रहा है, उसको देखने से बचने के लिए आप अपनी आँखें फोड़ लेंगे तो यह सही प्रयास नहीं है। आँखें नहीं रहने पर भी रूप दिखाई देना बन्द नहीं होता। आँखें बन्द होने पर भी नींद की दशा में मनुष्य सपने देखता है। सपनों में देखी बातों से उसकी सुख-शान्ति नष्ट होती है। अतः मन को बन्द करने से कोई लाभ नहीं है।
विशेष-
1. लेखक का कहना है कि निषेध से मनुष्य के मन पर सच्चा नियन्त्रण नहीं होता।
2. मन को उचित-अनुचित का विचार कर उचित पक्ष को ग्रहण करने में सामर्थ्यवान होना चाहिए।
3. भाषा बोधगम्य तथा प्रवाहपूर्ण है।
4. शैली विचारात्मक है।