प्राचीन काल से ही सच्चा फकीर उसको माना जाता है जो शारीरिक श्रम से विरत होकर, सांसारिक कार्यों से मुक्त होकर किसी एकान्त स्थल पर चिन्तन-मनन करता है और ईश्वर का ध्यान करने में समय व्यतीत करता है। लेखक इस मत का समर्थन नहीं करता । निकम्मे रहकर चिन्तन-मनन करने वाले पथ भ्रष्ट हो जाते हैं तथा उनके विचार बासी हो जाते हैं। उनसे समाज का हित नहीं हो सकता।
धार्मिक चिन्तन बिना शरीर श्रम के अधूरा है। वह सही मार्ग दिखाने वाला नहीं पथभ्रष्ट करने वाला है। जब साधु-सन्त, पंडित, मौलवी, पादरी आदि हल, कुदाल, खुरपा लेकर काम करते हैं तभी उनके उपदेश और विचार फलदायक होते हैं तभी उनमें नवीनता तथा मौलिकता उत्पन्न होती है। मजदूरी करने वाले को एक नया ईश्वर दिखाई देने लगता है।
शारीरिक श्रम ही सच्ची फकीरी का अनमोल भूषण है। निकम्मापन मनुष्य की चिन्तन शक्ति को थका देता है। फकीरी में वह आनन्द भाव नहीं रहता जो श्रमिक के श्रम में होता है। संसार के अनेक महापुरुष, विचारक तथा साहित्यकार फकीरों के समान जीवन बिताते रहे हैं, उनके जीवन में शरीर-श्रम से विमुखता नहीं है। ऐसे महामानवों में जोन ऑफ आर्क, टाल्सटाय, उमर खैयाम, खलीफा उमर, सन्त कबीर, भक्त रैदास, भगवान श्रीकृष्ण तथा गुरुनानक आदि के नामों का उल्लेख किया जा सकता है।