कठिन शब्दार्थ-मूक = गूंगा, नि:शब्द, शांत। कल्याण = भला। कदाचित् = संभवतः। दिल के नेत्र = दिव्यज्ञान। वेदज्ञान = वेद = मंत्रों का पाठ। ऊटपटांग = उल्टी-सीधी। जी उकताना = मन ऊबना। अद्भुत = विचित्र। आत्मानुभव = आत्मज्ञान।
सन्दर्भ एवं प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘सृजन’ में संकलित ‘मजदूरी और प्रेम’ शीर्षक निबन्ध से उधृत है। इसके लेखक अध्यापक पूर्ण सिंह हैं।
लेखक ने एक गड़रिये को देखा। उसके सरल और श्रमपूर्ण जीवन से वह बहुत प्रभावित हुआ। उसने अपने भाई से कहा कि वह भी भेड़े चराने वाले गड़रिये के समान जीवन व्यतीत करना चाहता है। ऐसे शांत, पवित्र और प्रेम भरे जीवन में ही सच्चा आनन्द है।
व्याख्या-लेखक कहता है कि भेड़ पालने वाले गड़रिये का जीवन पवित्र और स्पष्ट है। इस प्रकार का नि:शब्द, शांत जीवन जीकर वह भी अपना कल्याण करना चाहता है। उसे लगता है कि ज्ञान सरल प्राकृतिक जीवन जीने में बाधक होता है। वह विद्या को भूलना चाहता है। उसकी पुस्तकें खो जाये तो अच्छा है। ऐसा होने पर संभवत: वन में रहने वाले उस गड़रिया-परिवार की तरह उसके मन की आँखें खुल जायें और उसको ईश्वर के दर्शन हो सकें। सूर्य और चन्द्रमा का जो प्रकाश चारों ओर फैला है, उसमें वेदमंत्रों की गूंज व्याप्त है। उसको गड़रिये की लड़कियों की तरह वह भी सुन सकेगा। सुन नहीं प्रत्यक्ष देख सकेगा। वैदिक ऋषियों ने भी वेद के मंत्रों को सुना नहीं, देखा ही था। विद्वानों के उपदेश निरर्थक और व्यर्थ हैं। उनसे लेखक का मन ऊब गया है। उन उपदेशों को सुनकर आध्यात्मिक सुख नहीं मिलता। आनन्दपूर्ण प्राकृतिक जीवन जीने वाले ये बिना पढ़े-लिखे लोग ईश्वर के हँसते हुए स्वरूप का साक्षात् दर्शन कर रहे हैं। पशु अज्ञानी होते हैं। किन्तु उनको आध्यात्मिकता का गहरा ज्ञान होता है। वन का स्वाभाविक जीवन जीने वालों को जीवन का विचित्र आत्मिक अनुभव प्राप्त है। गड़रिये के परिवार का प्रेम और श्रमशीलता अमूल्य है। उसकी कीमत नहीं चुकाई जा सकती॥
विशेष-
(i) प्राकृतिक, श्रमपूर्ण, निश्छल, प्रेम भरा जीवन आनन्ददायक होता है। ऐसे लोगों को ईश्वर का दर्शन सरलता से प्राप्त होता है।
(ii) ज्ञान आत्मिक प्रसन्नता और सरलता में बाधक होता है।
(iii) भाषा सरल तथा प्रवाहपूर्ण है।
(iv) शैली भावात्मक है।