कठिन शब्दार्थ-निकम्मा = शरीर से श्रम न करने वाला। चिन्तन = विचार। मन के घोड़े हारना = विचार करने की शक्ति नष्ट होना। निचुड़ना = तत्वहीन, नीरस। पुनरावृत्ति = दोहराना। कुँआरापन = मौलिकता।
सन्दर्भ एवं प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘सृजन’ में संकलित ‘मजदूरी और प्रेम’ शीर्षक निबंध से उद्धृत है। इसके लेखक सरदार पूर्ण सिंह हैं।
लेखक की मान्यता है कि शारीरिक श्रम के अभाव में मानसिक चिन्तन अपूर्ण है। जो बैठा-बैठा सोचता रहता है और हाथ-पैर नहीं हिलाता, उसका जीवन भ्रष्ट हो जाता है। ईश्वर पद्मासन से नहीं पसीना बहाने से प्राप्त होता है। लुहार, बढ़ई, किसान ये सभी कवि, महात्मा तथा योगी के समान ही श्रेष्ठ तथा महान होते हैं।
व्याख्या-लेखक कहता है कि जो लोग शारीरिक परिश्रम नहीं करते, उनकी सोचने-विचारने की शक्ति बेकार हो जाती है। जिनका जीवन बिस्तरों पर लेटे-लेटे तथा आसनों पर बैठे-बैठे ही व्यतीत होता है, अपने मन की सोचने-विचारने की शक्ति थक जाती है, उनका जीवन तत्वहीन तथा नीरस हो जाता है। उनकी भविष्य के प्रति कल्पना में नयापन नहीं रह जाता। आज ऐसा ही हो रहा है। कविता में नवीनता नहीं बची है। वह पुराने समय की कविता का दोहराया स्वरूप है। वह नकली है। उसमें कविता का असलीपन तथा मौलिकता नहीं है। अब एक नए तरीके का संगीत और साहित्य संसार में पैदा होने वाला है। उस संगीत और साहित्य में हस्तकला और कौशल भी मिला हुआ होगा। उससे ही मानवता को नया जीवन मिलेगा। यदि इस प्रकार का साहित्य और संगीत उत्पन्न नहीं होगा तो मनुष्य मशीनी सभ्यता के नीचे दब जायेगा तथा उसकी मौलिकता नष्ट हो जायेगी और उसकी मृत्यु हो जायेगी॥
विशेष-
(i) लेखक का मानना है कि साहित्य, संगीत और चिन्तन तभी बचेगा जब मनुष्य श्रम की महत्ता को स्वीकार करेगा तथा स्वयं भी शारीरिक श्रम करेगा।
(ii) कोरे मानसिक चिन्तन से मनुष्यता का कुछ भी भला नहीं हो सकता।
(iii) भाषा सरल तथा सरस है। छोटे-छोटे वाक्यों के कारण उसमें सजीवता उत्पन्न हो गई है।
(iv) शैली भावात्मक तथा चित्रात्मक है॥