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मैं और मैं महत्त्वपूर्ण गद्यांशों की सन्दर्भ-प्रसंग सहित व्याख्याएँ।

मैंने सोचा-मेरा अपने प्रति यह अधिकार है कि मैं हार जाऊँ, थक जाऊँ, गिर भी पडूं और भूलूँ-भटकूँ भी, क्योंकि यह सब एक मनुष्य के नाते मेरे लिए स्वाभाविक है, संभव है, पर मेरा यह कर्तव्य है कि मैं हार कर भागू नहीं, थक कर बैलूं नहीं, गिर कर गिरा ही न रहूँ और भूल-भटक कर भरमता ही न फिरूँ, जल्दी-से-जल्दी अपनी राह पर आ जाऊँ। अपने काम में लग जाऊँ और एक नया आरंभ करूँ, क्योंकि रुक जाना ही मेरी मृत्यु है और न मरने से पहले, न मेरा अधिकार है और न कर्तव्य। 

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कठिन-शब्दार्थ-स्वाभाविक = प्राकृतिक, स्वभाव के अनुकूल। भरमता = भ्रम के कारण भटकता। राह = रास्ता।

सन्दर्भ एवं प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘सृजन’ में संकलित “मैं और मैं” शीर्षक निबन्ध से उद्धृत है। इसके रचयिता कन्हैया लाल मिश्र ‘प्रभाकर’ हैं।

सिंहल तथा कौशल को स्मरण करके तथा फ्रेश स्टार्ट की बात से अनुप्राणित लेखक विचारमग्न हो गया। वह सोचने लगा मनुष्य होने के कारण उसकी क्या-क्या खामियाँ और खूबियाँ हैं।

व्याख्या-लेखक ने सोचा कि अपने जीवन में वह चलते-चलते थक और हार सकता है। वह गिर भी सकता है तथा भ्रम में पड़कर रास्ता भटक सकता है। वह एक मनुष्य है तथा ऐसा होना न असंभव है और न अस्वाभाविक । इन बातों को लेखक अपना अधिकार मानता है, परन्तु वह हमें अपने कर्तव्यों के बारे में भी बताता है। वह कहता है कि उसका कर्तव्य यह है कि वह हारे, तो अवश्य पर भागे नहीं, थक जाय, किन्तु बैठे नहीं। यदि गिर जाए, तो गिरा ही न रहे, उठे भी। वह भूले और भ्रमित हो, किन्तु सदा भ्रम से ग्रस्त न रहे। वह जल्दी ही अपने सही रास्ते पर आ जाए। वह एक नवीन काम में लग जाए और एक नया आरम्भ करें। रुक जाना उसकी मृत्यु है और मरने से पहले उसका अधिकार और कर्तव्य कुछ नहीं है।

विशेष-
(i) लेखक की चिन्तनशील प्रवृत्ति का परिचय इस परिच्छेद में मिलता है।
(ii) निरन्तर चलना, कर्म करना ही जीवन है। थक-हार कर बैठ जाना मृत्यु है।
(iii) भाषा साहित्यिक, किन्तु सुबोध है।
(iv) शैली विचारात्मक है।

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