‘स्मृति’ मनुष्य में निहित एक विशिष्ट शक्ति का नाम है। यह ऐसी योग्यता है जिसमें व्यक्ति सीखी गयी विषय-सामग्री को धारण करता है तथा धारणा से सूचना को एकत्रित कर सूचना को उत्तेजनाओं के प्रत्युत्तर में पुनः उत्पादित कर अधिगम सामग्री को पहचानता है। स्मृति का मानव-जीवन में अत्यधिक महत्त्व है। प्राचीन भारत में वेदों को स्मृति के माध्यम से संचित तथा हस्तान्तरित किया गया था।
‘स्मृति का अर्थ
सामान्यतः स्मृति का अर्थ है किसी ज्ञान या अनुभव को याद करना। स्मृति के सम्बन्ध में प्रचलित ‘अनोखी शक्ति विषयक धारणा धीरे-धीरे मानसिक प्रक्रिया में परिवर्तित हो गयी; अतः स्मृति का अर्थ समझने के लिए इस प्रक्रिया का सार तत्त्व समझना आवश्यक है।
मनुष्य की ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से अर्जित उत्तेजना (अथवा अनुभव या ज्ञान) उसके मस्तिष्क में संस्कार के रूप में अंकित हो जाती है और इस भाँति वातावरण की प्रत्येक उत्तेजना का मानव-मस्तिष्क में एक संस्कार बन जाता है। ज्ञानेन्द्रियों से प्राप्त विभिन्न संस्कार आगे चलकर संगठित स्वरूप धारण कर लेते हैं और चेतन मन से अर्द्ध-चेतन मन में चले जाते हैं। ये संस्कार/अनुभव या ज्ञान, वहीं अर्द्ध-चेतन मन में संगृहीत रहते हैं तथा समयानुसार चेतन मन में प्रकट भी होते रहते हैं। अतीत काल के किसी विगत अनुभव के अर्द्ध-चेतन मन से चेतन मन में आने की इस प्रक्रिया को ही स्मृति कहा जाता है। उदाहरणार्थ-बहुत पहले कभी मोहन ने नदी के एक घाट पर व्यक्ति को डूबते हुए देखा था। आज पुनः नदी के उस घाट पर स्नान करते समय उसे डूबते हुए व्यक्ति को स्मरण हो आया और भूतकाल की घटना का पूरा चित्र उसकी आँखों के सामने आ गया।
विद्वानों के मतानुसार सीखने की क्रियाओं को स्मृति की क्रियाओं से पृथक् नहीं किया जा सकता। अच्छी स्मृति या स्मरण शक्ति से हमारा अर्थ-सीखना, याद करना अथवा पुनःस्मरण (recall) से है।
स्मृति की परिभाषा
अनेक मनोवैज्ञानिकों ने स्मृति को परिभाषित करने का प्रयास किया है। उनमें से कुछ प्रमुख परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं-
⦁ स्टाउद के अनुसार, “स्मृति एक आदर्श पुनरावृत्ति है जिसमें अनुभव की वस्तुएँ यथासम्भव मौलिक घटना के क्रम तथा ढंग से पुनस्र्थापित हैं।”
⦁ वुडवर्थ के शब्दों में, “बीते समय में सीखी हुई बातों को याद करना ही स्मृति है।”
⦁ जे० एस० रॉस के अनुसार, “स्मृति एक नवीन अनुभव है जो उन मनोदशाओं द्वारा निर्धारित होता है जिनका आधार एक पूर्व अनुभव है, दोनों के बीच का सम्बन्ध स्पष्ट रूप से समझा जाता है।”
⦁ मैक्डूगल के मतानुसार, “घटनाओं की उस भाँति कल्पना करना जिस भाँति भूतकाल में उनका अनुभव किया गया था तथा उन्हें अपने ही अनुभव के रूप में पहचानना स्मृति है।”
⦁ चैपलिन के अनुसार “पूर्व में अधिगमित विषय के स्मृति-चिह्नों को धारण करने और उन्हें वर्तमान चेतना में लाने की प्रक्रिया को स्मरण कहते हैं।”
⦁ रायबर्न के अनुसार, “अनुभवों को संचित रखने तथा उन्हें चेतना के केन्द्र में लाने की प्रक्रिया को स्मृति कहा जाता है।”
उपर्युक्त परिभाषाओं के अध्ययन एवं विश्लेषण से ज्ञात होता है कि स्मृति यथावत् प्राप्त पूर्व-अनुभवों को उसी क्रम से पुनः याद करने से सम्बन्धित है। यह एक जटिल मानसिक प्रक्रिया है। जिसके अन्तर्गत संस्कारों को संगठित करके धारण करना तथा हस्तान्तरित अनुभवों को पुन:स्मरण करना शामिल है जिसके परिणामस्वरूप मनुष्य के पुराने अनुभव उसकी चेतना में आते हैं। दूसरे शब्दों में, “पूर्व अनुभवों को याद करने, दोहराने या चेतना के स्तर पर लाने की मानसिक क्रिया स्मृति कहलाती है।”
स्मृति के तत्त्व
स्मृति के चार प्रमुख तत्त्व हैं-सीखना, धारणा, पुन:स्मरण या प्रत्यास्मरण तथा प्रत्यभिज्ञा या पहचान। इनका संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है
(1) सीखना (Learming)-‘सीखना या अधिगम’ स्मृति का आधारभूत तत्त्व है। स्मृति की क्रियाएँ सीखने से उत्पन्न होती हैं। वुडवर्थ ने स्मृति को सामान्य रूप से सीखने का एक अंग माना है ,तथा स्मरण को सीखे गये तथ्यों का सीधा, उपयोग बताया है। जब तक कोई ज्ञान, अनुभव यर तथ्य मस्तिष्क में पहुँचकर अपना संस्कार नहीं बनायेगा तब तक स्मरण की प्रक्रिया प्रारम्भ हो ही नहीं सकती। सीखी हुई बातें पहले अवचेतन मन में एकत्र होती हैं और बाद में याद की जाती हैं; अतः। सीखना स्मरण के लिए सबसे पहली शर्त है।
(2) धारणा (Retention)- सीखने के उपरान्त किसी ज्ञान या अनुभव को मस्तिष्क में धारण कर लिया जाता है। किसी समय-विशेष में जो कुछ सीखा जाता है, मनुष्य के मस्तिष्क में वह स्मृति चिह्नों या संस्कारों के रूप में स्थित हो जाता है। जीवन के विभिन्न क्षेत्रों से आये सभी संस्कार एक संगठित अवस्था में अवचेतन मन में संगृहीत होते हैं। वस्तुतः स्मृति-चिह्नों या संस्कारों के संगृहीत होने की क्रिया ही धारणा है। आवश्यकतानुसार इन संगृहीत संस्कारों को पुनः दोहराया जा सकता है।
(3) पुनःस्मरण या प्रत्यास्मरण (Recall)- सीखे गये अनुभवों को पुनः दोहराने या चेतना में लाने की क्रिया पुन:स्मरण या प्रत्यास्मरण कहलाती है। यह क्रिया निम्नलिखित चार प्रकार की होती है-
⦁ प्रत्यक्ष पुनःस्मरण- प्रत्यक्ष पुन:स्मरण में विगत की कोई सामग्री, बिना किसी दूसरे साधन अथवा अनुभव का सहारा लिये, हमारे चेतन मन में आ जाती है।
⦁ अप्रत्यक्ष पुनःस्मरण- अप्रत्यक्ष पुन:स्मरण में विगत की कोई सामग्री, किसी अन्य वस्तु या अनुभव के माध्यम से, हमारे चेतन मन में उपस्थित हो जाती है; जैसे-मित्र के पुत्र को देखकर हमें अपने मित्र की याद आ जाती है।
⦁ स्वतः पुनःस्मरण- स्वतः पुन:स्मरण में व्यक्ति को बिना किसी प्रयास के अनायास ही किसी सम्बन्धित वस्तु, घटना या व्यक्ति का स्मरण हो आता है; जैसे-बैठे-ही-बैठे स्मृति पटल पर मित्र-मंण्डली के साथ नैनीताल की झील में नौकाविहार का दृश्य उभर आना।
⦁ प्रयासमय पुनःस्मरण- जब भूतकाल के अनुभवों को विशेष प्रयास करके चेतन मन में लाया जाता है तो वह प्रयासमय पुन:स्मरण कहलाएगा।
(4) प्रत्यभिज्ञा या पहचान (Recognition)- प्रत्यभिज्ञा या पहचान, स्मृति का चतुर्थ एवं अन्तिम तत्त्व है जिसका शाब्दिक अर्थ है-‘किसी पहले से जाने हुए विषय को पुनः जानना या पहचानना। जब कोई भूतकालीन अनुभव, चेतन मन में पुन:स्मरण या प्रत्याह्वान के बाद, सही अथवा गलत होने के लिए पहचान लिया जाता है तो स्मृति का यह तत्त्व प्रत्यभिज्ञा या पहचान कहलाएगा। उदाहरणार्थ–राम और श्याम कभी लड़कपन में सहपाठी थे। बहुत सालों बाद वे एक उत्सव में मिले। राम ने श्याम को पहचान लिया और अतीतकाल के अनुभवों की याद दिलायी जिनका प्रत्यास्मरण करके श्याम ने भी राम को पहचान लिया।