(अ) महिलाओं के आन्दोलन:
(1) भारत में 19वीं शताब्दी में महिलाओं से सम्बन्धित मुद्दों का आना: 19वीं शताब्दी के समाज सुधार आन्दोलनों में महिलाओं से सम्बन्धित अनेक मुद्दे उठाये गये। इनमें सती प्रथा, बाल विवाह, विधवा पुनर्विवाह निषेध एवं जाति भेद व अस्पृश्यता जैसी कुरीतियाँ प्रमुख थीं। इन प्रथाओं का विरोध करते हुए हिन्दी शास्त्रों का संदर्भ भी दिया गया।
(2) 20वीं सदी के प्रारम्भ में महिला आन्दोलन का स्वरूप:
- 20वीं सदी के प्रारम्भ में राष्ट्रीय तथा स्थानीय स्तर पर महिलाओं के संगठनों में वृद्धि हुई। भारतीय महिला एसोसिएशन, अखिल भारतीय महिला कॉन्फ्रेंस, भारत में महिलाओं की राष्ट्रीय काउंसिल आदि संगठनों की शुरुआत सीमित कार्यक्षेत्र से हुई, इनका कार्यक्षेत्र समय के साथ विस्तृत हुआ। ये संगठन ऐसा वातावरण बनाने में सफल हुए जहाँ महिलाओं के मुद्दों की उपेक्षा नहीं की जा सकती थी।
- स्वतंत्रता के पूर्व के काल में जनजातीय तथा ग्रामीण क्षेत्रों में होने वाले संघर्षों में महिलाओं ने पुरुषों के साथ भाग लिया। तिभागा आन्दोलन, तेलंगाना आन्दोलन इसके उदाहरण हैं।
(3) महिला आन्दोलन का दूसरा दौर: सन् 1970 के दशक के मध्य में भारत में महिला आन्दोलन का नवीनीकरण हुआ। कुछ लोग इसे भारतीय महिला आन्दोलन का दूसरा दौर कहते हैं। इस दौर में 'स्वायत्त महिला आन्दोलन' कहे जाने वाले आन्दोलनों में वृद्धि हुई। ये महिला संगठन राजनैतिक दलों से स्वतंत्र थे। इस दौर में संगठनात्मक परिवर्तन के अलावा कुछ नए मुद्दे भी थे, जैसे महिलाओं के प्रति हिंसा, भू-स्वामित्व व रोजगार के मुद्दों की लड़ाई, यौन-उत्पीड़न तथा दहेज के विरुद्ध अधिकारों की माँग इत्यादि । महिला आन्दोलनों के फलस्वरूप महत्त्वपूर्ण कानूनी परिवर्तन आए हैं।
(ब) जनजातीय आन्दोलन- देश भर में फैले विभिन्न जनजातीय समूहों के मुद्दे समान हो सकते हैं, लेकिन उनके विभेद भी उतने ही महत्त्वपूर्ण हैं।
(1) मध्य भारत में जनजातीय आन्दोलन: जनजातीय आन्दोलनों में से कई अधिकांश रूप से मध्य भारत की तथाकथित 'जनजातीय बेल्ट' में स्थित रहे हैं जैसे - छोटा नागपुर व संथाल परगना में स्थित संथाल, हो, ओरांव व मुंडा। नए गठित हुए झारखण्ड प्रदेश का मुख्य भाग इन्हीं से बना है। झारखण्ड में जनजातीय आन्दोलन का इतिहास सौ वर्ष पुराना है। जनजातीय आन्दोलन जनजातियों की समस्याओं को लेकर किए जाते हैं।
अंग्रेजी शासकों की नीतियाँ किसीन - किसी रूप में जनजातीय समाज को प्रभावित करती रही हैं तथा इन नीतियों के विरुद्ध जनजातियाँ संघर्षरत रहीं। बाहरी लोगों द्वारा अपने सांस्कृतिक मूल्यों को जनजातीय संस्कृति पर थोपने, वन एवं वन सम्पदा पर सरकारी एकाधिकार की नीति, बाहरी लोगों द्वारा जनजातियों का शोषण करने तथा अंग्रेजों की जनजातीय क्षेत्रों में विस्तारवादी नीति के कारण अंग्रेजी काल में अनेक जनजातीय आन्दोलन हुए।
(2) पूर्वोत्तर भारत में जनजातीय आन्दोलन: स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत सरकार ने राज्यों के निर्माण की जो प्रक्रिया प्रारम्भ की, उसने इस क्षेत्र के सभी प्रमुख पर्वतीय क्षेत्र के जिलों में अशांति की प्रवृत्ति पैदा की। अपनी पृथक् पहचान तथा पारम्परिक स्वायत्तता के प्रति सचेत ये जातियाँ असम के प्रशासनिक तंत्र में सम्मिलित किए जाने के बारे में अनिश्चित थीं। एक मुख्य मुद्दा जो देश के विभिन्न भागों के जनजातीय आन्दोलनों को जोड़ता है, वह है जनजातीय लोगों का वन - भूमि से विस्थापन । इस अर्थ में पारिस्थितिकीय मुद्दे जनजातीय आन्दोलनों के केन्द्र में हैं। लेकिन इसी प्रकार पहचान की सांस्कृतिक असमानता व विकास जैसे आर्थिक मुद्दे भी हैं जिनके कारण जनजातियाँ आन्दोलन करती रही हैं।