NCERT Solutions Class 12, Hindi, Antra, पाठ "कच्चा चिट्ठा"
लेखक - ब्रजमोहन व्यास
1. पसोवा की प्रसिद्धि का क्या कारण था और लेखक वहाँ क्यों जाना चाहता था ?
उत्तर
पसोवा में जैन धर्म के तीर्थस्थल विद्यमान थे। उसकी प्रसिद्धि में इन तीर्थस्थलों का मुख्य हाथ था। यहाँ हर वर्ष जैन समुदाय का एक बहुत बड़ा मेला लगता था। जैन श्रद्धालु हज़ारों की संख्या में यहाँ आते थे। प्राचीन समय से ही इस मेले का महत्व रहा है। इसके अतिरिक्त यहाँ एक पहाड़ी थी, जिसमें बुद्धदेव द्वारा रोज़ व्यायाम किया जाता था। उस पहाड़ी में एक नाग भी रहा करता था। यह भी कहा जाता था कि सम्राट अशोक ने उसके समीप ही एक स्तूप बनवाया था, जिसमें बुद्धदेव के नख और बाल रखे गए हैं। यह सोचकर लेखक ने वहाँ जाने का निर्णय लिया ताकि उसे पुरातत्व से संबंधित वस्तु तथा जैसे मूर्ति, सिक्के आदि सामग्री मिल जाए। उसकी इस लालसा ने उसे पसोवा जाने के लिए विवश कर दिया।
2. “मैं कहीं जाता हूँ तो छूँछे हाथ नहीं लौटता” से क्या तात्पर्य है ? लेखक कौशांबी लौटते हुए अपने साथ क्या-क्या लाया ?
उत्तर
‘मैं कहीं भी जाता हूँ तो छूँछे हाथ नहीं लौटता’ का तात्पर्य है कि लेखक जब भी कहीं जाता है तब खाली हाथ वापस नहीं आता। वह उस स्थान से कोई-न-कोई वस्तु लेकर ही लौटता है। कौशांबी लौटते हुए लेखक को कोई विशेष महत्त्व की चीज तो नहीं मिली, पर गाँव के भीतर उसे कुछ बढ़िया मृणमूर्तियाँ, सिक्के और मनके मिल गए। एक छोटे से गाँव के निकट पत्थरों के ढेर के बीच, पेड़ के नीचे, उसने एक चतुर्भुज शिव की मूर्ति देखी। वह एक पेड़ के सहारे रखी हुई थी। लेखक का जी ललची गया। उसने उसे अपने इक्के पर रख लिया। उसका वजन लगभग 20 सेर होगा। पसोवे से थोड़ी चीज मिलने की कमी इस मूर्ति ने पूरी कर दी। लेखक ने उसे नगरपालिका के संग्रहालय के मंडप में रख दिया।
3. “चांद्रायण व्रत करती हुई बिल्ली के सामने एक चूहा स्वयं आ जाए तो बेचारी को अपना कर्त्तव्य पालन करना ही पड़ता है।”-लेखक ने यह वाक्य किस संदर्भ में कहा और क्यों ?
उत्तर
लेखक जब पसोवा से वापस कौशांबी लौट रहा था तो रास्ते में उसने देखा कि पत्थरों के ढेर के बीच, पेड़ के नीचे एक चतुर्भुज शिव की मूति रखी है। उसे देखकर उसका जी ललचा गया। उसकी स्थिति चांद्रायण व्रत करने वाली बिल्ली के समान ही थी। बिल्ली चाहे कितना ही प्रत करे पर चूहे को सामने देखकर उसका जी ललचा ही जाता है। यही उसका कर्त्तव्य है। लेखक ने यह वाक्य कौशांबी से लौटते समय एक पेड़ के सहारे रखी चतुर्भुज शिव की मूर्ति को देखकर कहा। इस मूर्ति को देखकर लेखक का जी ललचा गया। उसने इधर-उधर देखा और चुपचाप उस मूर्ति को अपने इक्के पर रखवा लिया। लेखक को भी अपने कर्त्तव्य का पालन करना ही था। उसे संग्रहालय के लिए वह मूर्ति चाहिए थी।
4. “अपना सोना खोटा तो परखवैया का कौन दोस ?” से लेखक का क्या तात्पर्य है ?
उत्तर
इसका तात्पर्य है कि यदि दोष हमारी वस्तु में है, तो हमें परखने वाले को दोष नहीं देना चाहिए। अर्थात परखने वाला तो वहीं दोष निकालेगा, जो उस वस्तु में होगा। अतः परखने वाले को किसी भी प्रकार से दोषी नहीं ठहराया जा सकता है। लेखक पुरातत्व महत्व की वस्तु को देखते ही अपने साथ ले जाता था। उसकी इस आदत से सभी परिचित थे। अतः कहीं भी मूर्ति गायब हो जाती थी, तो लोग लेखक का नाम ही लेते थे। अतः लेखक कहता है कि इसमें दोष नाम लेने वाला का नहीं स्वयं उसका है।
5. गाँव वालों ने उपवास क्यों रखा और उसे कब तोड़ा ? दोनों प्रसंगों को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
गाँव वालों को जब पता लगा की शिव की प्राचीन मूर्ति चोरी हो गई है, तो वे दुखी हो उठे। शिव की मूर्ति उनके गाँव के बाहर एक पेड़ के सहारे रखी हुई थी। गाँववाले उसकी पूजा किया करते थे। उनकी आस्था तथा श्रद्धा पूर्ण रूप से शिव पर ही थी। जब लेखक उनके गाँव के पास से गुज़रा, तो उसने पुरानी मूर्ति जानकर उसे अपने साथ ले गया। मूर्ति न पाकर गाँव वाले दुखी हो गए। उन्होंने तय किया कि जब तक शिव की मूर्ति वापस नहीं आएगी, वे न कुछ खाएँगे और न कुछ पिएँगे। इस तरह सभी ने उपवास करना आरंभ कर दिया।
गाँव वालों को लेखक पर शक था। अतः वे सब मिलकर उसके पास जा पहुँचे और उनसे शिव की मूर्ति वापस माँगी। लेखक ने बिना किसी परेशानी के सम्मान सहित वह मूर्ति गाँववालों के साथ भेज दी। उसने गाँववालों को पानी तथा मिठाई खिलाकर उनका व्रत तुड़वाया।
6. लेखक बुढ़िया से बोधिसत्व की आठ फुट लंबी मूर्ति प्राप्त करने में कैसे सफल हुआ ?
उत्तर
लेखक कौशांबी के गाँवों में इसलिए घूम रहा था कि उसे कोई महत्त्वपूर्ण मूर्ति मिल जाए। उसे एक खेत की मेड़ पर बोधिसत्व की आठ फुट ऊँची एक सुंदर मूर्ति पड़ी दिखाई दी। यह मथुरा के लाल पत्थर की थी। सिवाए सिर के पदस्थल तक यह मूर्ति संपूर्ण थी। लेखक जैसे ही इस मूर्ति को उठवाने लगा वैसे ही खेत पर काम करती एक बुढ़िया तमतमाती हुई कहने लगी-” बड़े चले मूर्ति उठाने, यह मूर्ति हमारी है. हम नहीं देंगे। हमने इसे निकलवाया है, इसका नुकसान कौन भरेगा ?” लेखक साधारण वेशभूषा में था अतः उसने बुढ़िया के मुँह लगना ठीक नहीं समझा। वह समझ गया कि बुढ़िया लालची है अतः उसने अपने जेब में पडे रुपयों को ठनउनाया। उसने बुढ़िया को नुकसान पूरा करने के लिए दो रुपये देने का प्रस्ताव किया। बुढ़िया की समझ में बात आ गई। बुढ़िया ने दो रुपए लेकर लेखक को मूर्ति दे दी। वह बोली-” भइया! हम मने नाहीं करित। तुम लै जाव!” इस प्रकार लेखक बुढ़िया से बोधिसत्व की आठ फुट लंबी सुंदर मूर्ति प्राप्त करने में सफल हो गया।
7. “ईमान ऐसी कोई चीज मेरे पास हुई नहीं तो उसके डिगने का कोई सवाल नहीं उठता। यदि होती तो इतना बड़ा संग्रह बिना पैसा-कौड़ी के हो ही नहीं सकता।”-के माध्यम से लेखक क्या कहना चाहता है?
उत्तर
लेखक के इस कथन का तात्पर्य है कि जो लोग ईमान की बात करते हैं, वह कभी न कभी बेईमान हो जाते हैं। लेखक ईमान जैसी चीज़ से ही स्वयं को मुक्त कर लेता है। वह कहता है कि उसके पास इस तरह की कोई चीज़ नहीं थी। अतः जो चीज़ उसके पास है ही नहीं, तो उसके खोने या चले जाने की स्थिति ही नहीं आ सकती। भाव यह है कि हमारे पास जब वह वस्तु होगी ही नहीं, तो हमें उसके खोने का डर ही नहीं रहेगा।
लेखक की यह बात उस कथन ने स्पष्ट होती है, जब उसने बोधिसत्व की मूर्ति को पाने के लिए बुढ़िया को 2 रुपए दिए थे। आगे चलकर उसे उस मूर्ति के 10 हज़ार मिल रहे थे। उसने बिना सोचे-समझे वे पैसे लेने से मना कर दिया। वह चाहता अपने दिए 2 रुपए तथा मेहनत को वसूल लेता। उसने ऐसा कुछ नहीं किया। अपने कार्य के प्रति वह पूर्ण रूप से समर्पित था। यदि वह इस तरह लालच में आकर अपने कार्य से धोखा करता, तो उसका संग्रहालय कभी खड़ा ही नहीं हो पाता। उसके पास अपार संपत्ति होती। उसने संग्रहालय को अपना सबकुछ माना और पूरी ईमानदारी से उसे खड़ा किया। यह संग्रहालय उसके परिश्रम और ईमानदारी को दर्शाता है।
8. दो रुपए में प्राप्त बोधिसत्व की मूर्ति पर दस हजार रुपये क्यों न्यौछावर किए जा रहे थे ?
उत्तर
लेखक को बोधिसत्व की मूर्ति दो रुपए में प्राप्त हुई थी। यह मूर्ति उन बोधिसत्व की मूर्तियों में से एक थी जो अब तक संसार में पाई गई मूर्तियों में सबसे पुरानी है। यह कुषाण सम्राट कनिष्क के राज्यकाल के दूसरे वर्ष में स्थापित की गई थी। ऐसा लेख उस मूर्ति के पदस्थल पर खुदा है (उत्कीर्ण है)। इस मूर्ति का चित्र और उसका वर्णन विदेशी पत्रों में छप चुका था। अतः एक फ्रांसीसी (जो एक बड़ा डीलर था) इस मूर्ति को लेखक से दस हजार रुपयों में खरीदना चाहता था। यही कारण था कि उस मूर्ति पर दस हजार रुपए न्यौछावर किए जा रहे थे। लेखक ने यह प्रस्ताव टुकरा दिया था।
9. भद्रमथ शिलालेख की क्षंतिपूर्ति कैसे हुई ? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
भद्रमथ शिलालेख यद्यपि लेखक ने प्रयांग संग्रहालय के लिए 25 रुपए में खरीदा था, पर गवर्नमेंट ऑफ इडिया के पुरातत्त्व विभाग को देना पड़ा क्योंकि इस पर विवाद खड़ा हो गया था। लेखक इस शिलालेख की क्षतिपूति के प्रयास में लगा रहा। उसने सोचा कि जिस गाँव में भद्रनाथ का शिलालेख हो सकता है, संभव है वहाँ और भी शिलालेख हों। उसने कौशांबी से 4-5 मील दूर गुलजार मियाँ के यहाँ डेरा डाल दिया। उनके मकान के ठीक सामने एक पुख्बा सजीला कुआँ था। चयुतरे के ऊपर चार पक्के खंभे बने हुए थे। उन पर अठपहल पत्थर की बँडडर बनी थी। लेखक की दृष्टि उस बँडेर पर गई। इसके एक सिरे से दूसरे सिरे तक ब्राह्मी अक्षरों में एक लेख खुदा था। गुलजार ने खंभों को खोदकर वह पत्थूर निकालकर दे दिया। इससे भद्रमाथ के शिलालेख की क्षतिपूर्ति हो गई।
10. लेखक अपने संग्रहालय के निर्माण में किन-किन के प्रति अपना आभार प्रकट करता है और किसे अपने संग्रहालय का अभिभावक बनाकर निश्चिंत होता है ?
उत्तर
लेखक अपने संग्रहालय के निर्माण में निम्नलिखित व्यक्तियों के प्रति अपना आभार प्रकट करता है :
- डॉ. पन्नालाल, आई. सी. एस. : ये उस समय सरकार के परामर्शदाता थे। इनके सौजन्य और सहायता से कंपनी बाग में संग्रहालय के लिए एक भूखंड मिल गया।
- डॉ. ताराचंद : इन्होंने शिलान्यास का पूरा कार्यक्रम निश्चित किया।
- पं. जवाहर लाल नेहरू : इन्होंने संग्रहालय का शिलान्यास किया।
- मास्टर साठे और मूता : इन्होंने भवन का नवशा बनाया।
- रायबहादुर कामता प्रसाद (तत्कालीन चेयरमैन)।
- हिज हाइनेस श्री महेंद्र सिंह जू देव नागौद नरेश।
- सुयोग्य दीवान लाल भार्गवेंद्र सिंह।
- स्वामीभक्त अर्दली जगदेव।
लेखक डॉ. सतीशचंद्र काला को संग्रहालय का अभिभावक बनाकर निश्चिंत हो गया और उसने संन्यास ले लिया।